माह ऐ मुहर्रम का चाँद देखते ही हुसैन के चाहने वाले उनके नक़्शे क़दम पे चलने की कोशिश करने वाले आँखों में आंसू लिए या हुसैन या हुसैन की सदायें बलन्द करने लगते है और जगह जगह फर्श ऐ अज़ा बिछाते और हुसैन मज़लूम पे हुए ज़ुल्म को याद करते और उनके मक़सद ऐ शहादत को बयान करते हैं और इन सबके साथ साथ दुनिया को बताते हैं देखो नवासा ऐ रसूल (स.ा.व ) पे कैसा ज़ुल्म हुआ लेकिन उन्होंने ज़ालिम की बैयत नहीं की|
इन अय्याम ऐ अज़ा के दिनों में लोग जगह जगह शब्बेदारियाँ करते हैं अंजुमनें लगती है , नौहा मातम होता है और हर जगह चाहे मजलिस हो या जुलुस हज़ारों लाखों का मजमा हुसैन के नाम पे जमा हुआ करता है | यक़ीनन सिवाय हुसैन (ा.स ) के किसी के किरदार में इतनी ताक़त नहीं की जिसके नाम पे इतना बड़ा मजमा एक जगह जमा हो सके |
इन दिनों के बाद कोई अगर चाहे तो भी एक जगह इतना मजमा अपनी क़ौम के लोगों का जमा नहीं कर सकता और नाम ऐ हुसैन पे तो सिर्फ शिया क़ौम नहीं बल्कि हर फ़िरक़े के लोग जमा हुआ करते हैं |
सवाल यह उठता है की क्या हमारे उलेमा और ज़ाकिरों से इतने बड़े मजमे को कुछ दिया ? क्या उन्होंने कोशिश की इस बात की कि क़ौम के लोगों के इल्म में इज़ाफ़ा हो , उनका किरदार हुसैनी बने वगैरह एक बड़ी लिस्ट है |
और अगर उलेमा और ज़किरीन ने कोशिश की तो क्या हम ने उन्हें सुना और समझना चाहा ? क्या हमारे किरदार में कोई तब्दीली आयी ?
हमें तो नाम ऐ हुसैन में बहुत कुछ मिल गया | मुरादें पूरी हुयी , अंजुमन बनी तो ओहदा और नाम मिला पहचान मिली , ज़किरी की तो इज़्ज़त मिली दौलत मिली , वगैरह लेकिन हमने इन दिनों में हुसैन (ा.स) को क्या दिया ?
अगर हम सबने खुलूस के साथ अज़ादारी की इबादत को अंजाम दिया सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की ख़ुशनूदी में और इतने बड़े मजमे को नाम ऐ हुसैन पे जमा करने के बाद कुछ उन्हें ऐसी फ़िक्र दी की उनका किरदार बलन्द हो सके , लब्बैक या हुसैन के सही मायने समझा सके , इमाम हुसैन (ा.स) के इस्तगासे "हल मिन नसीरीन यनसुरना" के इस्तगासे का मतलब समझ सके तो हम आप कामयाब हुए वरना फिर से कोशिश करें की जो कमी इस बार रह गयी है अगर अल्लाह ने उम्र दी तो अगले साल उन कमियों को दूर करते हुए अज़ादारी करेंगे |
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