सोंचने की बात है की ईद ऐ ग़दीर मनाई और विलायत ऐ अली या इमामत के मक़सद को नहीं समझा और आपसी इख्तेलाफ़ात में कोई कमी नहीं आयी |
अज़ादारी तो किया लेकिन मक़सद ऐ हुसैन को नहीं समझा ,अल्लाह की राह में क़ुर्बानी के मायने ही समझ में नहीं आये , बादशाहों की जी हुज़ूरी में ही वक़्त जाया करते रहे , हक़ और बातिल का फैसला करने की सलाहियत ही पैदा न कर सके खुद में |
इमाम , नबियों और अल्लाह के नेक बन्दों शहीदों की क़ब्रों रौज़ों पे तो गए लेकिन उनके किरदार उनकी सीरत से कुछ नहीं सीखा उनकी क़ुर्बानियों को नहीं समझा तो। ........
यह तो वही बात हुयी की मस्जिद तो गए लेकिन नमाज़ ही नहीं पढ़ी | या कह लें की इंसान तो पैदा हुए लेकिन इंसानियत को ही नहीं समझा | अली के शिया तो खुद को कहलवाया लेकिन अली को ही नहीं समझा | अल्लाह के दीन इस्लाम पे होने का दावा तो किया इस्लाम के मक़सद को ही नहीं समझा |
........एस एम मासूम
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